वैसे मीनाक्षी भी
अपनी जगह
सही थी.
वह जानती
थी कि
केवल रविवार
की सुबह
सारे घरवाले,
अंजाने मे
ही सही,
पर आराम
से थोड़ी
देर साथ
बैठते थे.
३-४
दिन से
जो विचार
उसके मन
मे कुलबुला
रहा था
उसे घरवालों
से साझा
करने के
लिए वो
बेताब थी.
जैसे ही
चाए-नाश्ते
का दौर
शुरू हुआ
तो मीनाक्षी
ने झट
से अपने
बेटे से
पूछा, "महेश तुम्हे याद है
या नहीं
कि मुझे
कथक नृत्य
कितना पसंद
था. जब
भी मौका
मिलता मैं
टी.वी.
पर कथक
देखने लगती
थी और
इस बात
पर तुम्हारे
पिताजी और
मेरे बीच
कितनी नोंक-झोंक हुआ
करती थी.
महेश ने बिना
अख़बार से
नज़रें हटाएँ,
एक 'हूँ'
के साथ
जवाब दिया.
मीनाक्षी तो
ऐसे जवाबों
की आदी
हो चुकी
थी. बात
बढ़ाते हुए
मीनाक्षी ने
कहा कि,
'मेरी कथक
की जो
शिक्षा बचपन
में अधूरी
रह गयी
थी वह
मैं अब
पूरी करना
चाहती हूँ.
मैंनें अख़बार
में एक
कथक-अकॅडमी
का इश्तेहार
भी देखा
था, जो
हमारे घर
से ज़्यादा
दूर भी
नही है.
अपनी बात बोलने
के बाद
वह उम्मीदों
भरी निगाहों
से घर
वालों की
और ताक
रही थी.
बदले में
उसे ऐसी
हैरत भरी
निगाहों से
देखा जा
रहा था
जैसे उसने
स्विस-बैंक
में जमा
काला धन
वापस लाने
का फूलप्रूफ
प्लान बताया
हो!
मीनाक्षी ने फिर
अपने १५
साल के
पोते से
पूछा कि,
"गुड्डू चला करेगा ना मेरे
साथ अकॅडमी
तक? मैं
तुझे रोज़
'किसमी' खिलाया
करूँगी...' तभी गुड्डू तपाक
से उनकी
बात काटते
हुए बोल
पड़ा,"क्या दादी आप भी...आजकल तो
'डेरिमिल्क-सिल्क' का ज़माना है.
मैं तो
वैसे भी
अपनी कोचिंग-क्लास में
बिज़ी रहूँगा...हाँ अगर
आप 'हिप-हॉप' सीखने
जाती तो
मैं कुछ
सोचता भी...!
मीनाक्षी कुछ कह
पाती इसके
पहले ही
उसकी बहू
ने चाए
का प्याला
ज़ोर से
टेबल पर
पटकते हुए
कहा,'क्या
अम्मा,एक
और फितूर
सवार हो
गया आपके
दिमाग़ पर.
कितनी दफे
आपसे कहा
है कि,
दिन-रात
जगजीत सिंह
की ग़ज़ले
ना सुना
कीजिए. उमर
हो गई
है आपकी.
यह काग़ज़
की कश्ती
अब लहरों
से जूझने
लायक नही
रह गई
है!'
बहू की हाँ
में हाँ
मिलाते हुए,
बेटा भी
बोल पड़ा
कि, सही
तो बोल
रही है
वो. आप
की उमर
अब रामायण-गीता पढ़ने
की है,
कथक करने
की नहीं.
ज़रा तो
सोचिए कि आस-पड़ोस
वाले क्या-क्या बातें
बनाएँगे!
इसके साथ ही
कमरे में
सन्नाटा छा
गया. रात
को बाकी
लोग तो
जल्दी सो
गये परंतु
मीनाक्षी की
आँखों से
नींद कोसों
दूर थी.
आख़िरकार जब
सब्र का
बाँध टूटा
तो वो
फफक कर
रो पड़ी.
कुशवाहा कांत की
पंक्ति उसकी
हालत को
बयान कर
रही थी-
"एक हुक
सी दिल
में उठती
है, एक
दर्द सा
दिल में
होता है
मैं चुपके-चुपके रोता
हूँ, जब
दुनिया सारी
सोती है"
पूरा कालचक्र उसकी
आँखों के
सामने घूमने
लगा. कैसे
संसाधनों के
अभाव में
उसकी कथक
की शिक्षा
बीच में
ही छूट
गयी थी
और बाद
में कॉलेज
में रिश्तेदारों
के कारण
रज़ामंदी नहीं
मिल पाई
थी. शादी
के बाद
तो नौकरी
और बेटे
की देखभाल
मे तालमेल
बिठाते-बिठाते
खुद की
पसंद-नापसंद
के बारे
में सोचना
तो जैसे
नामुमकिन ही
था.
आज जब उसके
पास संसाधनों
एवं समय
दोनों की
भरमार है,
तो क्या
वह सिर्फ़
इसलिए अपने
सपने पूरे
नहीं करेगी
क्योंकि पड़ोस
के कुछ
लोग ताने
मारेंगे! क्या
जीवन के
इस मोड़
पर भी
उसकी ज़िंदगी
की स्टियरिंग
दूसरों के
हाथों में
रहेगी?
नहीं! हरगिज़ नहीं!
मीनाक्षी के
मन से
ज़ोरदार आवाज़
आई. जीवन
की इस
संध्या में
वह अपने
चाँद एवं
तारें स्वयं
ही चुनेगी.
बचपन के
जिस सावन
में भीगने
से वह
वंचित रह
गयी थी,
उसकी फुहारें
आज भी
उसके मन
के किसी
कोने को
भिगोती है.
यह कश्ती
आज भी
बारिश के
पानी में
सफ़र करने
के लिए
लालायित है.
इसी दृढ़ निश्चय के
साथ मीनाक्षी
इंतज़ार करने
लगी....इंतज़ार एक नयी सुबह
का.
Manas, Congrates!! for a wonderful post.
ReplyDeleteThank you. :)
ReplyDeleteHey Manas really nice work..keep it up... :)
ReplyDeleteThank you Aditi....:)
ReplyDeletehey very nyc,,,,,,,,,
ReplyDeleteDhanyawad Poorva...:)
ReplyDeletegood, good
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